Monday, January 26, 2009

9) क्यूं इसे हसरतो मातम में गुज़ारा जाये

ग़ज़ल
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क्यूं इसे हसरतो मातम में गुज़ारा जाये
ज़िन्दगी को नये ख़्वाबों से संवारा जाये
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रात तारीक है, रस्ता भी है अनजान तो क्या
आओ चल कर किसी जुगनू को पुकारा जाये
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तू मेरे साथ चले, मैं भी तेरे साथ चलूं
जिस तरह साथ ही दरया के किनारा जाये
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इक तमन्ना है यही, जब से मिला है कोई
ज़िन्दगी फिर तुझे इक बार गुज़ारा जाये
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तुझसे ऐ दोस्त नये रंगे सुख़न मुझको मिले
किस तरह यह तेरा एहसान उतारा जाये
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आओ ऐ ’दोस्त’ नये दौर का आग़ाज़ करें
अब ना माज़ी का कोई ज़ख़्म उभारा जाये

8) हमको जीने काम हुनर आया बहुत देर के बाद

ग़ज़ल

हमको जीने का हुनर आया बहुत देर के बाद
ज़िन्दगी हमने तुझे पाया बहुत देर के बाद


यूं तो मिलने को मिले लोग हज़ारों लेकिन
जिसको मिलना था वही आया बहुत देर के बाद

दिल की बात उससे कहें, कैसे कहें, या ना कहें
मस-अला हमने यह सुलझाया बहुत देर के बाद

दिल तो क्या चीज़ है हम जान भी हाज़िर करते
मेहरबां, आपने फ़रमाया बहुत देर के बाद

बात अश-आर के पर्दे में भी हो सकती है
भेद यह ’दोस्त’ ने अब पाया बहुत देर के बाद


जुलाई 2008

Thursday, January 22, 2009

6) तमन्ना, ख्वाब, उम्मीदें, इरादे

ग़ज़ल
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तमन्ना, ख्वाब, उम्मीदें, इरादे
इन्हें लेकर कहाँ जाऊं? बतादे ।
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मैं सच्चा हूँ तो कर इकरार मेरा
मैं झूठा हूँ तो जो चाहे सज़ा दे ।
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तू ही कातिल है और तू ही मसीहा
मुझे या ज़हर देदे, या दावा दे ।
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जो दीवाना है, दीवाना रहेगा
इलाज उसका ना कर, उसको दुआ दे ।
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उसी को 'दोस्त' अपना जानिएगा
जो तेरी फ़िक्र में ख़ुद को भुला दे ।
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दोस्त मोहम्मद
जुलाई 2008

5) होसला मरने का ना जीने का यारा ज़िन्दगी

ग़ज़ल
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हौसला मरने का, ना जीने का यारा ज़िन्दगी
और कितने इम्तिहाँ बाक़ी है ? बतला ज़िन्दगी ।
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जानता हूँ तेरे दामन से मिलेगा क्या मुझे
और दे दे कर खिलोने यूँ ना बहला ज़िन्दगी ।
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ख्वाब सारे ख्वाब ही हैं, ये भी ना रह पाएंगे
टूटने से इनका है रिश्ता पुराना ज़िन्दगी ।
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अब थकन से चूर इतने हो चुके हैं जिस्म ओ जां
नींद आजाये तो हमको मत जगाना ज़िन्दगी ।
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उम्र भर जिसने हकीक़त बनके बहकाया हमें
आख़िरश, ऐ 'दोस्त', वह निकली फ़साना ज़िन्दगी ।
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दोस्त मोहम्मद
जुलाई 2008

Wednesday, January 21, 2009

4) जीने की मुसर्रत है ना मरने का कोई ग़म

ग़ज़ल


जीने की मुसर्रत है, ना मरने का कोई ग़म
अब ज़िन्दगी इसको तो नहीं कहते ऐ हमदम ।


क्या सोच के निकले थे तेरे साथ सफर पे
क्या देख के बैठे हैं सरे राह-गुज़र हम ।


कहने को है दावा तुझे साहब-नज़री का
क्या तूने कभी देखे हैं इस दिल में छिपे ग़म ।


ऐ काश के होता कोई सामान सुकूं का
ऐ काश के होते ना ये सदमात यूँ पैहम ।


क्या की है खता हमने ये मालूम तो होता
किस जुर्म की पादाश में तकदीर है बरहम ।


अब तो दिले सद-चाक येही कहता है ऐ 'दोस्त'
जा ढूँढ कोई वजहे सुकूं, ला कोई मरहम ।

दोस्त मोहम्मद

19 दिसम्बर 2008

Friday, January 16, 2009

3) कुछ ना होगा उसे भुलाने से

ग़ज़ल


कुछ ना होगा उसे भुलाने से
याद आता है वो बहाने से ।

उसके बारे में सोचता क्यूँ है
फायेदा क्या है दिल दुखाने से ।

वो मुझे छोड़ कर चला जाता
यह ही बेहतर था आजमाने से ।

दोस्तों काम सुलूक देख के अब
कोई शिकवा नहीं ज़माने से ।

ग़म की तौकीर कर के यह दौलत
कम नहीं है किसी खजाने से ।

इश्क करना कोई मजाक नहीं
जाओ पूछो किसी दीवाने से ।

बोझ दिल काम उतर सा जाता है
शेर अपने उसे सुनाने से ।

'दोस्त' कुछ देर के लिए ही सही
दिल बहेलता है मुस्कुराने से ।

दोस्त मोहम्मद

जुलाई 2008

Thursday, January 15, 2009

2) दिल के ज़ख्म को धो लेते हैं

ग़ज़ल

दिल के ज़ख्म को धो लेते हैं
तन्हाई में रो लेते हैं ।

दर्द की फसलें काट रहे हैं
फिर भी सपने बो लेते हैं ।

दीवानों सा हाल हुआ है
हंस देते हैं, रो लेते हैं ।

जो भी लगता है अपना सा
साथ उसी के हो लेते हैं ।

'दोस्त' अभी कुछ दर्द भी कम है
आओ थोड़ा सो लेते हैं ।

दोस्त मोहम्मद
जुलाई 2008