ग़ज़ल
जीने की मुसर्रत है, ना मरने का कोई ग़म
अब ज़िन्दगी इसको तो नहीं कहते ऐ हमदम ।
क्या सोच के निकले थे तेरे साथ सफर पे
क्या देख के बैठे हैं सरे राह-गुज़र हम ।
कहने को है दावा तुझे साहब-नज़री का
क्या तूने कभी देखे हैं इस दिल में छिपे ग़म ।
ऐ काश के होता कोई सामान सुकूं का
ऐ काश के होते ना ये सदमात यूँ पैहम ।
क्या की है खता हमने ये मालूम तो होता
किस जुर्म की पादाश में तकदीर है बरहम ।
अब तो दिले सद-चाक येही कहता है ऐ 'दोस्त'
जा ढूँढ कोई वजहे सुकूं, ला कोई मरहम ।
दोस्त मोहम्मद
19 दिसम्बर 2008
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